ग़ज़ल
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मेरी खुशियों का इरादा जो किया करती है.
जिन्दगी दर्द भी छुप छुप के दिया करती है.
दीन दुखियों से हमेशा ही घृणा है करती,
काश दुनिया ये अमीरों की दुआ करती है.
जुल्म करके भी बड़े लोग छूट हैं जाते,
बेकसूरों को अदालत भी सजा करती है.
ठीक से पांव भी पड़ते हैं नहीं धरती पर,
इस तरह तेरी मुहब्बत भी नशा करती है.
आदमी फर्ज की राहों से भटक है जाता,
आखिरी सांस तलक शम्मा जला करती है.
एक दो रोज की ये बात नहीं है साथी,
जिंदगी रोज ही बेखौफ खता करती है.
जान यह पाया नहीं आज तलक आखिर क्यूँ
देखकर मुझको तेरी आंख दुखा करती है.