ग़ज़ल
*******दिलवरों की डगर ढूढ़ते रह गये.
आज पूरा शहर ढूढ़ते रह गये.
रोटियां तो मिली पेट भर भी गया,
मुख्तसर एक घर ढूढ़ते रह गये.
लोग उल्फत के मेरी दिवाने हुए,
आप की हम नजर ढूढ़ते रह गये,
सबको रस्ते मिले सबको मंजिल मिली,
और हम हमसफर ढूढ़ते रह गये.
इस तरफ उस तरफ सुब्ह से शाम तक,
हम तेरी रहगुज़र ढूढ़ते रह गये.
जख्मेदिल को तसल्ली सुकूँ दे सके,
एक ऐसा बशर ढूढ़ते रह गये.
जो नदी प्यास सबकी बुझाती रही,
आज उसकी लहर ढूढ़ते रह गये.
शिव नारायण शिव
12-10-21