ग़ज़ल
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खुद भी हंसना न पराये को हंसाना आया.
कितना कमबख्त मेरे दोस्त जमाना आया,
बाद मुश्किल के गये रात बहुत आंख लगी,
ख्वाब आया तो लिए गम का फसानाआया.
आदमीयत की वो तालीम दिया करते हैं,
द्वेष अपने न जिन्हें घर का मिटाना आया.
उस तरह इल्म तोआया न उन्हें उल्फत का,
जिस तरह उनको मेरा जख्म दुखाना आया.
धूप में कतरे लहू के भी सुखाये हमने,
जिन्दगी फिर भीअभी तक न सजाना आया.
बात ही बात में हम हाथ उठा देते हैं,
सर मगर अपने बड़ों को न झुकाना आया.
यूँ तो कर डाले हैं रौशन भी जहाँ को लेकिन,
एक दीपक न मुहब्बत का जलाना आया.
शिव नारायण शिव
23-8-21